बस्तर महाराज : प्रवीरचंद्र भंजदेव

प्रवीर के आन्दोलन और उनकी राजनीतिक हत्या
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बस्तर के इतिहास की महत्वपूर्ण कड़ी थे रियासतकाल के अंतिम महाराजा प्रवीर चन्द्र भंजदेव जो अपने नाम के साथ उपनाम की तरह “काकतीय” भी जोड़ा करते थे। प्रवीर का जन्म 25.06.1929 को शिलांग में हुआ था। 26.02.1936 को छ: वर्षीय प्रवीर (1936 – 1947 ई.) का औपचारिक राजतिलक हुआ तथा जुलाई 1947 में उन्हें ब्रिटिश सरकार द्वारा पूर्ण राज्याधिकार प्राप्त हुए थे। 15.08.1947 को भारत स्वतंत्र हुआ तथा 1.01.1948 को बस्तर रियासत का भारतीय संघ में औपचारिक विलय हो गया। यह प्रवीर की कहानी का पटाक्षेप नहीं अपितु शुरुआत थी। यह स्वाभाविक था कि सत्ता छिन जाने तथा महाराजा से प्रजा हो जाने की पीड़ा उनकी वृत्तियों से झांकती रही तथा इसकी खीझ वे एश्वर्य प्रदर्शनों, लोगों में पैसे बाटने जैसे कार्यों से निकालते भी रहे। तथापि उम्र के साथ आती परिपक्वता तथा राजनीति के थपेड़ों ने उन्हें एक संघर्षशील इंसान भी बनाया तथा धीरे धीरे वे अंचल में आदिम समाज के वास्तविक स्वर और प्रतिनिधि बन कर उभरे। प्रवीर की लोकप्रियता और अपनी राजनीति प्रचारित न कर पाने की तत्कालीन राजनीति/व्यवस्था की यह कुण्ठा ही थी जो समय समय पर प्रवीर पर बेरहमी से निकाली जाती रही। 13 जून 1953 को उनकी सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स के अंतर्गत ले ली गयी।

प्रवीर ने 1955 में "बस्तर जिला आदिवासी किसान मजदूर सेवा संघ" की स्थापना की थी। 1956 में उन्हें पागल घोषित कर राज्य द्वारा उपचार के लिये स्विट्जरलैंड भेजा गया जहाँ आरोप निराधार पाये गये। 1957 में प्रवीर बस्तर जिला काँग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए; आमचुनाव के बाद भारी मतो से विजयी हो कर विधानसभा भी पहुँचे। 1959 को प्रवीर ने विधानसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। मालिक मकबूजा की लूट आधुनिक बस्तर में हुए सबसे बड़े भ्रष्टाचारों में से एक है जिसकी बारीकियों को सबसे पहले उजागर तथा उसका विरोध भी प्रवीर ने ही किया था। महाराजा प्रवीर ने देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम कई पत्र लिखे। मालिक मकबूजा की लूट को वे उजागर करना चाहते थे किंतु परिणाम नहीं निकला। 11 फरवरी 1961 को राज्य विरोधी गतिविधियों के आरोप में प्रवीर धनपूँजी गाँव में गिरफ्तार कर लिये गये। इसके तुरंत बाद फरवरी-1961 में प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट के तहत प्रवीर को गिरफ्तार कर नरसिंहपुर जेल ले जाया गया। राष्ट्रपति के आज्ञापत्र के माध्यम से 12.02.1961 को प्रवीर के बस्तर के भूतपूर्व शासक होने की मान्यता समाप्त कर दी गयी। प्रशासन की जिद और प्रवीर पर हो रही ज्यादतियों का परिणाम 31.03.1961 का लौहंडीगुड़ा गोली काण्ड़ था, जहाँ बीस हजार की संख्या में उपस्थित विरोध कर रहे आदिवासियों पर निर्ममता से गोली चलाई गयी थी।फरवरी 1962 को कांकेर तथा बीजापुर को छोड़ पर सम्पूर्ण बस्तर में महाराजा पार्टी के प्रत्याशी विजयी रहे तथा यह तत्कालीन सरकार को प्रवीर का लोकतांत्रिक उत्तर था। अंतत: 30 जुलाई 1963 को प्रवीर की सम्पत्ति कोर्ट ऑफ वार्ड्स से मुक्त कर दी गयी।

प्रवीर ने अपने समय में बस्तर अंचल के वास्तविक मुद्धो को तथा तत्कालीन सरकार की उन प्रत्येक नीतियों पर स्पष्ट विचार रखते है जिनका सम्बन्ध बस्तर से रहा है। दण्डकारण्य प्रोजेक्ट जिसके तहत पूर्वी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को बस्तर मे बसाये जाने के विरुद्ध भी मुखर हुए। 1964 ई. में प्रवीर ने पीपुल्स वेल्फेयर एसोशियेशन की स्थापना की। 12 जनवरी 1965 को प्रवीर ने बस्तर की समस्याओं को ले कर दिल्ली के शांतिवन में अनशन किया था। गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा द्वारा समस्याओं का निराकरण करने के आश्वासन के बाद ही प्रवीर ने अपना अनशन तोड़ा था। 6 नवम्बर 1965 को आदिवासी महिलाओं द्वारा कलेक्ट्रेट के सामने प्रदर्शन किया गया जहाँ उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया। इसके विरोध में प्रवीर, विजय भवन में धरने पर बैठ गये। 16 दिसम्बर 1965 को आयुक्त वीरभद्र ने जब उनकी माँगों को माने जाने का आश्वासन दिया तब जा कर यह अनशन टूट सका। 8 फरवरी 1966 को पुन: जबरन लेव्ही वसूलने की समस्या को ले कर प्रवीर द्वारा विजय भवन में अनशन किया गया। सरकार द्वारा स्पष्ट आश्वासन प्राप्त करने के बाद ही उन्होंने अपना अनशन समाप्त किया था। 12 मार्च 1966 को नारायणपुर इलाके में भुखमरी और इलाज की कमी को ले कर प्रवीर द्वारा पुन: अनशन किया गया। प्रवीर के आन्दोलन व्यवस्था के लिये प्रश्नचिन्ह बने हुए थे जिनका दमन करने के लिये आदिवासी और भूतपूर्व राजा के बीच के बंध को तोड़ना आवश्यक था।

शायद यही सारे करण थे जिसकी पृष्ठभूमि में 25 मार्च 1966 के गोलीकाण्ड की नींव रखी गयी तथा महाराजा प्रवीरचन्द्र भंजदेव की राजनैतिक हत्या की गयी। उस दिन अनेकों गाँवों के माझी आखेट की स्वीकृति अपने राजा से लेने आये थे, राजमहल में अपार भीड थी। चैत और बैसाख महीनों में आदिवासी शिकार के लिये निकलते हैं जिसके लिये राजाज्ञा लेने की परम्परा रही है। यह भी एक कारण था कि भीड़ में धनुष-वाण बहुत बड़ी संख्या में दिखाई पड़ रहे थे, यद्यपि वाणों को युद्ध करने के लिये नहीं बनाया गया था। ज्यादातर वाण वो थे जिनसे चिड़ियाँ मारने का काम लिया जाना था। इसी बीच आदिवासियों और पुलिस में एक विचाराधीन कैदी को जेल ले जाते समय झड़प हुई जिसमे एक सूबेदार सरदार अवतार सिंह की मौत हो गयी। इसके बाद पुलिस ने आनन-फानन में राजमहल परिसर को घेर लिया; आँसूगैस छोड़ी गयी तथा फिर फायरिंग होने लगी। चूंकि राजमहल परिसर में भारी संख्या में आदिवासी थे अंत: उनकी और से धनुष वाण से इस अनावश्यक हमले का प्रतिरोध किया गया। आदिम वाणों ने बहुत वीरता से देर तक गोलियों को अपने देवता तक पहुँचने से रोके रखा। एक प्रत्यक्षदर्शी अर्दली के अनुसार प्रतिरोध क्षीण हो जाने के पश्चात बहुत से सिपाही राजा के कमरे के भीतर घुस आये थे। जब वह सीढ़ियों से नीचे उतर कर भाग रहा था उसे गोलियाँ चलने की कई आवाजें सुनाई दीं...वह जान गया था कि उनके महाराज प्रवीर चंद्र भंजदेव मार डाले गये हैं। शाम के साढ़े चार बजे इस आदिवासी ईश्वर का अवसान हो गया था। प्रवीर की मृत्यु के साथ ही राजमहल की चारदीवारी के भीतर चल रहे संघर्ष ने उग्र रूप ले लिया। रात्रि के लगभग 11.30 तक निरंतर संघर्ष जारी रहा और गोली चलाने की आवाजें भी लगातार महल की ओर से आती रहीं थीं। इसके बाद रुक रुक कर गोली चलाये जाने का सिलसिला अलगे दिन की सुबह चार बजे तक जारी रहा। 26.03.1966; सुबह के ग्यारह बजे; जिलाधीश तथा अनेकों पुलिस अधिकारी महल के भीतर प्रविष्ठ हो सके। इसी शाम प्रवीर का अंतिम संस्कार कर दिया गया। प्रवीर के आन्दोलन हिंसक नहीं थे किंतु उनकी राजनैतिक हत्या निश्चित ही गाँधी के इस देश का काला अध्याय है।
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साभार : राजीव रंजन प्रसाद जी ( इतिहासकार )

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