शिक्षा क्षेत्र, पैसे का खेल और धर्मांतरण का बढ़ता प्रभाग

चलिए आज हम जगदलपुर में मौजूद एक बड़े मिशनरी स्कूल के बारे में चलो आज बात करते हैं । 
वह कुल छात्रों की संख्या 4000 के करीब है । और हर एक छात्र पहले से 12वीं में पढ़ने वाले बच्चों की औसत फीस हम ₹2000 हर महीने का मान लेते हैं । हम यह भी मान लेते हैं कि हो सकता है किसी कक्षा में फीस ₹500 कम होगा और किसी कक्षा में फीस हजार ज्यादा भी होगा ।
₹2000 ( फीस) गुणा 4000 बच्चे। यह हुआ कल 80 लाख रुपये 1 महीने का आवक । 
अगर इस सालाना पैमाने पर लिया जाए तो कुल आवक उक्त विद्यालय की हो जाती है 9 करोड़ 60 लाख रुपए से अधिक । 
हम यह भी मान लेते हैं कि 4000 बच्चों पर हो सकता है उसे विद्यालय में 100 शिक्षक और 40 अन्य कर्मचारी भी जरूर होंगे ।
इसमें से कुछ शिक्षकों की तनख्वाह ₹10000 कुछ कर्मचारियों की तनख्वाह ₹15 000 कुछ वरिष्ठ कर्मचारियों की तनख्वाह ₹40000 भी हो सकती है पर हम एक औसत लेकर चलते हैं की प्रति कर्मचारी या हर महीने ₹25000 खर्च कर रहे हैं ।
140 गुणा 25000₹ = यह खर्च आता है लगभग 35 लख रुपए प्रतिमाह और अगर इस सालाना आंकड़े पर लिया जाए तो यह आता है 4 से 5 करोड़ के करीब सालाना ।
हम यह भी मान लेते हैं की विद्यालय के रखरखाव नए कुर्सी टेबल की आवश्यकता और नए कमरों की आवश्यकता पुस्तक कॉपी की आवश्यकता इन सब पर उक्त विद्यालय सालाना एक करोड़ और खर्च कर रहा है । हम यह भी मान लेते हैं कि उक्त विद्यालय 50 लाख तक का फीस माफ भी कर देता होगा कुछ बच्चों का जो अवश्य उक्त मिशन के धर्मावलंबी बच्चे ही होते हैं। 
तो भी विद्यालय का कुल खर्च 6 करोड़ के आसपास आता है जो मैं अधिकतम की पैमाने आने पर ले रहा हूं । इसके बाद भी उक्त विद्यालय के पास 3 करोड़ से अधिक रुपए अवश्य ही बच रहे होंगे और इन पैसों पर उन्हें सरकार को कोई टैक्स भी नहीं देना है क्योंकि सरकार शिक्षा के क्षेत्र में टैक्स वसूली नहीं करती ।
अब सोचिए कि यह 3 करोड रुपए वह विद्यालय क्या करता होगा ?


बस्तर में कुल प्राइवेट विद्यालयों में बड़ी संख्या ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों की है । अगर हम बस्तर के मुख्यालय जगदलपुर की बात करें तो यहां पर निर्मल विद्यालय , विद्या ज्योति दीप्ति कान्वेंट हायर सेकेंडरी स्कूल , मिशन स्कूल , ज्ञानोदय, 
कोंडागांव जिले मैं अगर देखा जाए तो चावरा विध्यालय, कांकेर में सेंट माइकल और न जाने कितने अन्य ।
बस्तर संभाग में केवल इनके 40 से अधिक शिक्षण संस्थान है ।
इनमें से कहीं तो कॉलेज भी इन्होंने खोल के रखे हैं ।

विचार कीजिए कि अगर इन संस्थाओं की औसत आमदनी 2 करोड़ भी मान लिया जाए किसी में काम भी हो सकता है और किसी में इससे ज्यादा भी जैसा कि मैं आपको पहले उदाहरण में समझाया कि उक्त विद्यालय की आमदनी लगभग तीन से चार करोड़ थी सालाना। 
तो ऐसे 40 संस्थाओं की कल आए लगभग 80 करोड रुपए से अधिक होती है ।
और सोचने वाली बात यह है कि इन स्कूलों में यह महंगे फीस देकर अपने बच्चों को पढ़ने वाले 80 से 90% हिंदू होते हैं ।
जिस संस्था की केवल बस्तर में आमदनी 80 करोड़ से अधिक हो क्या उसे कभी भी बाहर के विदेशी संस्थानों से धर्मांतरण के लिए पैसे लेने की आवश्यकता पड़ सकती है। 
सोचने वाली बात यह भी है की 80 के दशक से लेकर 2010 तक इन विद्यालय को फलने फूलने में पूरी तरीके से सहायता सरकार ने ही दी है ।
गौर करिए की 1980 के पहले हमारे बस्तर में कितनी ही मिशनरी संस्थाएं  शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करती थी ।
पर 1990 के शुरुआत पर धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों पर , जहां पर बच्चे मुफ्त में शिक्षा ग्रहण करते थे उन्हें बदहाली की ओर लगातार धकेला गया । शिक्षकों की भर्ती नहीं की जा रही थी और विद्यालयों की गुणवत्ता की ओर भी ध्यान नहीं दिया गया , कई विद्यालय में तो भवन भी नहीं मिलते थे । यह खेल लगभग 2010 तक तो चलता ही रहा।   बच्चों को और इस तरह एक खास वर्ग जिन्हें हम आज मध्यमवर्ग तथा उच्च वर्ग कहते हैं हमारे देश का वह अपने बच्चों को शासकीय स्कूलों की जगह इन ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित संस्थानों में भारती करने लगे और यही से धर्मांतरण के जोर का खेल भी शुरू हो जाता है ।

जब तक हिंदू वर्ग अपने बच्चों को इन ईसाई मिशनरी संस्थानों में भेजते रहेंगे तब तक हम किसी भी तरह से धर्मांतरण के लिए फंडिंग को रोकने का विचार अपने मन में नहीं ला सकते क्योंकि इन्हें करोड़ों रुपए उपलब्ध कराने वाले हम हिंदू ही हैं । जरा विचार कीजिए कि क्या ये बात गलत है ...........

रामभक्त ।

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