महाराज प्रवीर की हत्या और बढ़ता ईसाईकरण
बस्तर में मतांतरण: राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की शहादत के बाद एक बदलती सामाजिक तस्वीर
बस्तर, अपनी अनूठी जनजातीय संस्कृति और घने जंगलों के लिए जाना जाने वाला क्षेत्र, एक ऐतिहासिक मोड़ से गुजरा जब उसके लोकप्रिय राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की 1966 में हत्या कर दी गई। इस घटना ने बस्तर के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव डाला, और कई लोगों का मानना है कि इसके बाद क्षेत्र में धार्मिक मतांतरण की गतिविधियों में वृद्धि हुई।
बस्तर के जननायक: राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव
महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव बस्तर रियासत के अंतिम शासक थे, जिनका जन्म 25 जून 1929 को हुआ था और उन्होंने 1936 से अपनी शहादत तक शासन किया। वे अपने जनजातीय लोगों के बीच अत्यंत लोकप्रिय थे, जिन्हें वे अपना भगवान मानते थे। प्रवीर चंद्र भंजदेव ने जनजातियों के जल, जंगल और जमीन के अधिकारों के लिए संघर्ष किया, और क्षेत्र के प्राकृतिक संसाधनों के शोषण तथा भूमि सुधारों में भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने 1957 में जगदलपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक के रूप में भी कार्य किया। उनकी लोकप्रियता इतनी थी कि बस्तर के जनजातीयों के घरों में आज भी उनकी तस्वीरें पाई जाती हैं और उनकी पूजा की जाती है।
त्रासदी: राजा की शहादत
25 मार्च 1966 को, तत्कालीन कांग्रेस सरकार के शासनकाल में, प्रवीर चंद्र भंजदेव और उनके कई जनजातीय समर्थक जगदलपुर स्थित उनके महल में पुलिस गोलीबारी में मारे गए। आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, राजा सहित 12 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 20 घायल हुए थे। जगदलपुर के बहुत से वृद्ध इन आंकड़ों को सही नहीं मानते और मरने वालों की अधिक संख्या की आशंका जताते है । इस घटना को बस्तर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है। कई स्थानीय लोगों और विश्लेषकों का मानना है कि इस घटना ने जनजातियों और तत्कालीन सरकार के बीच एक गहरी खाई पैदा कर दी, जिसने आगे चलकर बस्तर में नक्सलवाद को पनपने का अवसर दिया।
शहादत के बाद मतांतरण का बढ़ता मुद्दा
राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की हत्या के बाद बस्तर में एक नेतृत्व का शून्य पैदा हो गया और जनजातियों में सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ गया। इसी माहौल में, कुछ स्रोतों के अनुसार, क्षेत्र में धार्मिक मतांतरण की गतिविधियों में तेजी आई। बस्तर राजपरिवार के सदस्य कमल चंद्र भंजदेव ने भी इस बात पर जोर दिया है कि प्रवीर चंद्र भंजदेव के शासनकाल में मतांतरण जैसे मामले सामने नहीं आए थे, लेकिन पिछले लगभग 70 सालों से बस्तर में मतांतरण के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
मिशनरियों ने इस उथल-पुथल का लाभ उठाया, जिससे बस्तर की आबादी के बीच धार्मिक मतांतरण में वृद्धि हुई। रिपोर्टों से पता चलता है कि मतांतरण मुख्य रूप से समुदाय के सबसे गरीब लोगों के बीच हुआ, अक्सर बीमारी के कारण परिवार के सदस्यों की मृत्यु के बाद, जब उन्हें समुदाय और गांव के अमीर सदस्यों से समर्थन नहीं मिला, तो कई परिवारों को ईसाई धर्म में समर्थन मिला।
मतांतरण में शिक्षण संस्थानों की भूमिका
यह भी आरोप लगाया जाता है कि ईसाई मिशनरी द्वारा बस्तर में खोले गए 50 से अधिक शिक्षण संस्थान भी मतांतरण के लिए आर्थिक सहायता प्रदान कर रहे हैं। इन संस्थानों के माध्यम से शिक्षा और अन्य प्रकार की सहायता प्रदान करने के साथ-साथ मतांतरण को बढ़ावा देने का आरोप लगता रहा है, जिससे क्षेत्र में धार्मिक जनसांख्यिकी में बदलाव की चिंताएं बढ़ गई हैं।
वर्तमान स्थिति और बहस
आज भी बस्तर में धार्मिक मतांतरण एक संवेदनशील और गरमाया हुआ मुद्दा बना हुआ है। विभिन्न संगठन और राजनीतिक दल इस विषय पर अपनी चिंता व्यक्त करते रहे हैं। सर्व आदिवासी समाज और विश्व हिंदू परिषद जैसे संगठन मतांतरण के खिलाफ मुखर रहे हैं। कुछ रिपोर्टों में बस्तर में बड़े पैमाने पर मतांतरण का दावा किया गया है, जबकि ईसाई समुदाय के नेताओं का कहना है कि कोई अवैध मतांतरण नहीं हो रहा है और यह केवल एक राजनीतिक मुद्दा है। हाल के वर्षों में, बस्तर में ईसाई धर्म अपनाने वाले जनजातियों की "घर वापसी" (हिंदू धर्म में वापसी) के कई मामले भी सामने आए हैं।
संक्षेप में, राजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की दुखद शहादत ने बस्तर के इतिहास में एक गहरा निशान छोड़ा। उनकी मृत्यु के बाद उत्पन्न हुए सामाजिक और राजनीतिक शून्य को कई लोग क्षेत्र में मतांतरण की बढ़ती प्रवृत्ति के एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में देखते हैं, जो आज भी बस्तर के सामाजिक ताने-बाने में एक जटिल और बहस का विषय बना हुआ है।
: तेजस्वी :
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